भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे “पंथनिरपेक्षता और समाजवाद” शब्द कितने संवैधानिक

भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे शामिल दो शब्दों पर भारतीय वामपंथी सबसे ज्यादा विलाप करते हैं। ये दो शब्द हैं “पंथनिरपेक्षता” और “समाजवाद”। 


लेकिन क्या ये तथाकथित प्रगतिशील लोग जानते हैं कि ये दोनों शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे कैसे आए? संविधान का अध्ययन करने वाला और प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं की तैयारी करने वाला कोई भी साधारण विद्यार्थी यह बता देगा कि संविधान की मूल प्रस्तावना मे ये दोनों शब्द नहीं हैं। 


भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना मे लिखा है – “हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। ” 


जाहिर है इस मूल प्रस्तावना मे ये दोनों शब्द नहीं हैं। तो फिर ये दोनों शब्द आए कहाँ से? 


दरअसल संविधान की प्रस्तावना मे ये दोनों शब्द 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ दिए गए। या फिर ये कहना ज्यादा उचित होगा कि ये दोनों शब्द देश पर थोप दिए गए। दिलचस्प बात यह है कि यह संशोधन, भारतीय संविधान के इतिहास मे वह संशोधन माना जाता है जिसने देश से गणतंत्र और लोकतंत्र होने का अधिकार छीन लिया था। इस संशोधन के बाद भारतीय संविधान को ” कान्स्टिटूशन ऑफ इंदिरा” कहा जाने लगा था। 

42 वां  संविधान संशोधन 

 
42 वां संविधान संशोधन 18 दिसंबर 1976 को किया गया था। तब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थी और देश मे आपातकाल लागू था। आपातकाल के समय मे इंदिरा गांधी की इच्छानुसार सरदार स्वर्ण सिंह, ” जो उस समय देश के विदेश और रक्षा मंत्री भी थे” की अगुवाई वाली एक समिति ने संविधान की प्रस्तावना मे इस संशोधन का सुझाव दिया था। 
 
25 जून 1975 को थोपे गए आपातकाल के दौरान मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। सारे विपक्षी नेता जेल मे बंद थे और संसद सरकार की मुठ्ठी मे थी। सरकार की आलोचना और प्रदर्शन प्रतिबंधित थे। प्रेस का मुँह बंद कर दिया गया था। । 
 
ऐसे मे यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या आपातकाल के दौरान किया गया यह संशोधन जायज है? जबकि इसका विरोध करने मे सक्षम हर मुँह को पहले ही बंद कर दिया गया था। 
 
इतना ही नहीं, इस नाजायज संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना मे जोड़े गए ये दोनों शब्द संवैधानिक रूप से भ्रम की स्थिति भी पैदा करते हैं। क्योंकि इन दोनों शब्दों की संविधान मे ना तो कोई स्पष्ट परिभाषा दी गई है और ना कोई एक परिभाषा ही है। ऐसा लगता है जैसे यह संशोधन इतनी जल्दबाजी मे किया गया हो कि स्पष्ट परिभाषा तय करने का मौका ही नहीं मिला। 
 

समाजवाद  

 
अगर समाजवाद की बात करें तो उसके दुनिया मे इतने मॉडल हैं किसी एक परिभाषा पर पहुंचना असंभव है। मसलन मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, टीटोवाद जैसे मॉडल्स, जिन्हे बड़ी बेशर्मी से जनवादी भी बताया जाता है। हालांकि सारी दुनिया जानती है कि इन मॉडल्स पर चलने वाली सरकारें कितनी अत्याचारी और दमनकारी रही हैं।  
 
संभवतः इन्ही विरोधाभासों को देखकर भारतीय संविधान के निर्माताओं ने समाजवाद जैसे शब्द को संविधान की मूल प्रस्तावना मे ना रखना ही बेहतर समझा। 
 
लेकिन इंदिरा गांधी ने आपातकाल का नाजायज फायदा उठाते हुए, एक नाजायज संशोधन से इस तथाकथित प्रगतिशील शब्द को संविधान की प्रस्तावना मे जोड़ दिया। इसके प्रस्तावना मे जोड़े जाने के बाद से भारत की कम्युनिस्ट सोवियत संघ के साथ खूब यारी बनी, लेकिन 1990 मे सोवियत संघ के टूटने और यूरोप मे समाजवाद की तेरहवीं होने तक भारत मे विकास की गति “कछुए कि चाल” सरीखी ही बनी रही। 
 

धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता 

 
धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता यूरोप से ली गई अवधारणा है, जिसका मतलब है धर्म और सत्ता के बीच मे कोई संबंध नहीं होगा। यूरोप मे पंथ और धर्म दोनों का अर्थ रिलीजन से लिया जाता है। जबकि भारतीय परिप्रेक्ष्य मे ये दोनों अलग अलग चीजें हैं। 
 
भारतीय परिप्रेक्ष्य मे धर्म एक ऐसी अवधारणा है जिसके लिए शेष दुनिया मे कोई शब्द उपलब्ध ही नहीं है। वहीं अगर पंथ की बात करें तो मध्ययुगीन भारत मे ऐसी बहुत सी अवधारणाएं मिलती है जिन्हे पंथ कहा तो जा सकता है किन्तु अगर यूरोपीय परिप्रेक्ष्य मे देखा जाए वे सारी अवधारणाएं पंथ की परिभाषा से बाहर हो जाती हैं। 
 
यूरोप के बड़े बड़े साम्राज्यों पर कैथोलिक चर्च का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है किन्तु भारत मे ऐसी किसी संस्था की गुंजाइश ही नहीं थी। यूरोपीय साम्राज्यों के बारे मे कहा जा सकता है कि असली सत्ता चर्च के हाथों मे थी किन्तु भारत मे ऐसी किसी संस्था के अभाव के कारण यह दावा कर पाना असंभव है। 
 
एन्लाइटन्मन्ट के दौर मे जब चर्च को सत्ता से अलग किया गया तब पंथनिरपेक्षता की अवधारणा ने जन्म लिया। जाहिर है इसका भारतीय परिस्थितियों से कोई लेना देना ही नहीं था। इसलिए भारतीय संदर्भ मे पंथनिरपेक्षता की अवधारणा महत्वहीन हो जाती है। 
 
ऐसे मे इस बात मे कोई दो राय नहीं है कि यह दोनों शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे आपातकाल का नाजायज फायदा उठाकर जबरदस्ती जोड़े गए हैं। अतः भारतीय वामपंथी जो इन दोनों शब्दों को लेकर अक्सर संविधान कि दुहाई देते हैं, उन्हे आत्मचिंतन करना चाहिए कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे इन दोनों शब्दों का जोड़ा जाना क्या संवैधानिक रूप से न्यायसंगत था? क्या इसे एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत संसद मे बहस और सहमति-असहमति की कसौटी पर कसा गया था? अगर नहीं तो इन दोनों शब्दों को संविधान मे जोड़े जाने को लेकर संसद मे एक बार फिर से बहस नहीं की जानी चाहिए?