भारत मे ही हिन्दी पर शर्मिंदा होते भारतीय: हिन्दी की दुर्दशा
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भारत सभ्यता और संस्कृति के लिहाज से दुनिया के सबसे पुराने देशों में से एक है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि हम भारतीयों ने अपनी सभ्यता को हजारों सालों तक विदेशी आक्रमणकारियों से ना केवल बचाए रखा अपितु और अधिक समृद्ध भी किया है। 800 सालों के मुगल राज और 200 सालों के अंग्रेजो के राज के दौरान भी भारत अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखने में ना केवल कामयाब रहा, बल्कि इन आक्रमणकारियों के एक बड़े वर्ग को अपने में समाहित भी कर लिया।
लेकिन भाषा के स्तर पर अगर देखा जाए तो भारत कहीं ना कहीं मात खा गया। आज भी हजारों वर्षों की अपनी सभ्यता पर गर्व करने वाले हम भारतीय अपनी सभ्यता की व्याख्या एक विदेशी भाषा अंग्रेजी में करना पसंद करते हैं। ना केवल देश की राजधानी दिल्ली अपितु तथाकथित रूप से आधुनिक होते छोटे शहरों में भी ‘कूल डूड और डूडनियां’ अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं और हम जैसे हिंदी भाषी लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं।
लेकिन आखिर ऐसा क्या कारण है कि आजादी के 72 सालों के बाद भी हम भारतीय अंग्रेजी की मानसिक गुलामी में जी रहे हैं? क्या कारण है कि मध्यम वर्गीय परिवार भी बड़े शौक से अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में भेज रहे हैं? हम भारतीयों में अपनी मातृभाषा को लेकर लगाव और आत्मसम्मान की इतनी कमी क्यों है?
अंग्रेजी के विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा होने का भ्रम:
कुछ अंग्रेजी के चाटुकार लोग इन प्रश्नों का उत्तर देते समय अंग्रेजी के अंतरराष्ट्रीय भाषा होने का दावा करते हैं तो दूसरी ओर कुछ नमूने ऐसे भी हैं जो अंग्रेजी के विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा होने की बात कह कर इन प्रश्नों से बचने का प्रयास करते हैं। लेकिन भारत के ये फर्जी संभ्रांत लोग चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस और उन यूरोपीय देशों को भूल जाते हैं जो तकनीकी विकास में तो भारत से कोसों आगे हैं, लेकिन वहां की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है।
यह कहना कि अंग्रेजी के बिना भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी में तरक्की नहीं कर सकता एक निहायत ही बचकानी बात है। चीन, जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बहुत सारे क्षेत्रों में अमेरिका और यूरोपीय देशों को भी पीछे छोड़ दिया है। लेकिन वे अपना सारा सरकारी-गैर सरकारी कामकाज अपनी अपनी मातृभाषा में ही करते हैं। वहां के लोग हम भारतीयों से बेहतर अंग्रेजी नहीं जानते। हम तो मैकाले की कृपा से 1835 से ही अंग्रेजी लिख बोल और पढ़ सकते हैं, तो फिर क्यों हम चीन, जापान, ताइवान और कोरिया जैसे देशों से तकनीकी विकास में पीछे रह गए। क्या इन देशों ने तकनीकी विकास की यात्रा पर चलने से पहले अपनी आबादी को अंग्रेजी का ज्ञान दिया था? क्यों किसी भारतीय अंग्रेजी भाषी लेखक को आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला? यदि अंग्रेजी भाषा का ज्ञान ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के लिए अनिवार्य है तो फिर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को तो हमेशा आगे ही रहना चाहिए था। क्यों ये देश जापान और कोरिया जैसे देशों से तकनीकी रूप से पिछड़ रहे हैं?
अपनी ही मातृभाषा पर शर्मिंदा होने वाली अजीब कौम:
मै भारतीय कौम को दुनिया सबसे अजीब कौम मानता हूं। ये वो लोग हैं जो अपनी ही मातृभाषा पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं और थोड़ी बहुत ‘विदेशी भाषा अंग्रेजी’ जानने पर शेखी बघारते घूमते हैं। चीन में तो विदेशियों को मंडारिन ना जानने पर लगभग हर बार ही शर्मिंदा होना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर भारत में तो उल्टी ही गंगा बह रही है। यहां भारतीयों को ही दिल्ली जैसे शहरों में आने पर अंग्रेजी ना जानने के कारण शर्मिंदा होना पड़ता है, तो अंग्रेजी जानने वाले टटपुंजिए से लोग उनका मजाक उड़ाते हैं।
साल 2012 की बात है। मै पहली बार दिल्ली आया था। संभवतः यह मेरी फुफेरी बहन के जन्मदिन का मौका था, जब हम सपरिवार एक रेस्तरां में भोजन करने के लिए गए हुए थे। मेरी बहन की कुछ अंग्रेजीदां सहेलियां भी साथ में थी। वहां किताबों की एक छोटी सी प्रदर्शनी लगी हुई थी, जहां से मैंने हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला खरीद ली। जब मेरी बहन और उसकी सहेलियों ने ये देखा तो वे चौंक गई कि मेरी उम्र का लड़का हिंदी की एक किताब कैसे खरीद सकता है। उन्हें लगता था कि मेरे जैसे लड़कों को चेतन भगत की ‘फाइव पॉइंट्स समवन’ ही पढ़नी चाहिए। वो अलग बात है कि साहित्यिक दृष्टि से ‘फाइव पॉइंट्स समवन’ निहायत बकवास के सिवा कुछ नहीं है।
अंग्रेजी की अति प्रशंसक मेरी प्रेमिका को भी लगता है कि हिंदी में भविष्य खोजने की मेरी कोशिशें व्यर्थ है। वह मेरे हिंदी प्रेम को लेकर अक्सर चिंतित रहती है कि अंग्रेजी के बिना हमारा भविष्य कैसा होगा। वहीं अच्छी अंग्रेजी ना जानने पर मेरा मजाक भी वैसे ही बनाती है जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है।
हिंदी प्रेमियों की निराशा:
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भारत में बीबीसी के संवाददाता मार्क टली, जो अब भारत के ही नागरिक बन चुके हैं और बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं, कहते हैं कि भारत में अंग्रेजी को पढ़े लिखों की और हिंदी को अनपढ़ गंवारों की भाषा समझा जाता है।
एक साक्षात्कार में उनका कहना था कि, “मैं तो लोगों से बात हिंदी में ही शुरू करता हूं, लेकिन लोग बार बार अंग्रेजी में ही जवाब देते हैं।” इससे तंग आकर अब उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि भारतीयों को हिंदी भूलकर अंग्रेजी ही बोलनी चाहिए। उनका कहना है कि भारतीयों की मानसिकता के लिए यही सही है कि वे अंग्रेजी ही पढ़े-लिखें और बोलें।